वैद्युतिक शक्ति परेषण(Electrical Power Transmission)
विद्युत उत्पादन केंद्र से ग्रिड स्टेशन तक विद्युत शक्ति पहुचाना ही विद्युत शक्ति परेषण कहलाता है।
विद्युत उत्पादन केन्द्रों में प्रायः 3.3 किलो वोल्ट, 6.6 किलो वोल्ट अथवा 11 किलो वोल्ट क्षमता के 3-फेज ए.सी. विद्युत उत्पादित किए जाते हैं,
जिनको स्टेप-अप ट्रांसफॉर्मर द्वारा उच्च वोल्टता वाले 220 किलो वोल्ट ए.सी. में परिवर्तित करके ग्रीड-स्टेशनों तक भेजा जाता है।
इसे प्राइमरी ट्रांसमिशन लाइन कहते है। ग्रीड-स्टेशनों के द्वारा ही विभिन्न
विद्युत उत्पादन केन्द्रों को एक दूसरे से जोड़ा जाता है, जिससे यदि कोई एक
विद्युत उत्पादन केंद्र में ब्रेक-डाउन होता है तो दूसरे विद्युत उत्पादन केंद्र
से विद्युत शक्ति की आपूर्ति बनाए रखी जा सके। ग्रिड-स्टेशन पर 220 किलो वोल्ट को ट्रांसफार्मर की सहायता से 33 किलो वोल्ट में बदला जाता है। ग्रिड-स्टेशन से विद्युत शक्ति किसी
नगर या कस्बे के सब-स्टेशन पर 33 किलो वोल्ट के रूप में
पहुंचाई जाती है। इसे सेकेण्डरी ट्रांसमिशन लाइन कहते है। इन सब-स्टेशनों पर
विद्युत शक्ति को स्टेप-डाउन ट्रांसफार्मर द्वारा 33 किलो वोल्ट से 11 किलो वोल्ट में परिवर्तीत
करके वितरण केंद्र को भेजा जाता है। इसे प्राइमरी डिस्ट्रीब्यूशन लाइन कहते हैं। यहां
से पुनः ट्रांसफार्मर द्वारा 11 किलो वोल्ट को 400 वोल्ट सप्लाई में परिवर्तीत करके उपभोक्ता को प्रदान किया जाता है।
इसे सेकेण्डरी डिस्ट्रीब्यूशन लाइन कहते हैं।
ए.सी. व डी.सी. परेषण की तुलना-
1. ए.सी.
को उच्च वोल्टता के साथ तथा डी.सी. को अपेक्षाकृत निम्न वोल्टता पर पारेषित किया
जाता है। उच्च वोल्टता के कारण ए.सी. में धारा का मान कम होता है जिससे ए.सी. को
पतले तार में भी पारेषित किया जा सकता है।
2. ए.सी.
का लगभग 33000 बोल्ट तक उत्पादन किया जा
सकता है, जबकि डी.सी. का उत्पादन समान्यतः केवल 650 वोल्ट तक ही होता है।
3. ए.सी.
की वोल्टता को आसानी से तथा कम खर्चे में उच्च या निम्न में परिवर्तीत किया जा
सकता है, जबकि डी.सी. में वोल्टता वृद्धि के लिए रोटरी बूस्टर तथा वोल्टता कम करने
के लिए प्रतिरोध की आवश्यकता होती है, जिसमें अधिक विद्युत का व्यय होता है।
4. ए.सी.
मोटर डी.सी. मोटर की अपेक्षा सरल होते हैं तथा आकार में भी छोटा होता हैं।
5. ए.सी.
को आसानी से डी.सी. में परिवर्तीत किया जा सकता है, जबकि डी.सी. को ए.सी. में परिवर्तीत
करने के लिए अधिक कठिनाई होती है।
डी.सी. की अपेक्षा ए.सी. के अवगुण-
1. सीमित चुम्बकीय क्षेत्र- ए.सी. में विद्युत धारा प्रवाह की दिशा निरंतर परिवर्तित होती रहती
है जिससे ए.सी. से विद्युत चुम्बक नहीं बनाये जा सकते।
2. ए.सी.
में वोल्टता का मान डी.सी. की अपेक्षा अधिक होता है, अतः ए.सी. वायरिंग में
प्रयुक्त चालक के ऊपर उच्च सामर्थ्य वाले चालक की आवश्यकता होती है।
3. सुरक्षा
की दृष्टि से ए.सी. वायरिंग में अर्थ स्थापित करना आवश्यक होता है।
4. बहुत से कार्य जैसे विद्युत लेपन, बैटरी चार्जिंग, सभी प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक कॉम्पोनेंट्स आदि में ए.सी. नहीं उपयोग किया जा सकता है।
उच्च परेशान वोल्टता के लाभ-
1. चालक धातु की बचत- समान
विद्युत शक्ति में वोल्टता अधिक होने से धारा का मान कम हो जाता है। जबकि वोल्टता
कम होने पर धारा का मान बढ़ जाता है। अतः जब धारा कम होगा तो पतले चालक की आवश्यकता
होगी जिससे चालक धातु कम खर्चीला होगा
2. विद्युत शक्ति अपव्यय में कमी- विद्युत शक्ति व्यय P = I2R होता है। अब वोल्टता अधिक होने से I का मान कम होगा जिससे विद्युत शक्ति व्यय भी घट जाएगा।
3. पारेषण लाइन की दक्षता में वृद्धि- क्योंकि विद्युत शक्ति अपव्यय में कमी आ जाती है, अतः पारेषण लाइन की
दक्षता बढ़ जाती है
4. अच्छा वोल्टेज रेगुलेशन- उच्च वोल्टेज तथा निम्न धारा पर शक्ति पारेषण में वोल्टेज रेगुलेशन
का मान भी अधिक रहता है
5. परेशान लाइन की स्थापना लागत में बचत- क्योंकि उच्च वोल्टेज पर पारेषण में पतले तार प्रयोग किए जाते हैं
अतः इनका वजन भी हल्का होता है जिससे लाइन इंसुलेटर, क्रॉस आर्म, बिजली के खम्बों
आदि में भी अपेक्षाकृत बचत होती है
पारेषण लाइनों में 3-फेज 3-तार प्रणाली- विद्युत शक्ति का उत्पादन 3-फेज अल्टरनेटर द्वारा किया जाता है। अतः विद्युत शक्ति का वोल्टेज 3-फेज ट्रांसफार्मर द्वारा स्टेप-अप अथवा स्टेप-डाउन किया जाता है। अब हम जानते हैं कि 3-फेज ट्रांसफार्मर की वाइंडिंग स्टार अथवा डेल्टा प्रकार की होती है, यहां पर केवल फेज की सप्लाई होती है न्यूट्रल की कोई आवश्यकता नहीं होती है। अतः ट्रांसफार्मर में केवल डेल्टा-डेल्टा प्रकार की वाइंडिंग की जाती है और विद्युत शक्ति का पारेषण किया जाता है। अब क्योंकि उपभोक्ता को न्यूट्रल की भी आवश्यकता होती है अतः विद्युत वितरण केन्द्रों पर 11 किलो वोल्ट ए.सी. को 440 वोल्ट ए.सी. में बदलने के लिए डेल्टा-स्टार प्रकार का ट्रांसफार्मर लगाया जाता है। इस ट्रांसफार्मर में इनपुट तो तीन फेज होता है लेकिन आउटपुट तीन फेज के साथ-साथ एक न्यूट्रल भी होता है। अतः आउटपुट में चार तार होते हैं। अब लाइट-एंड-फैन उपभोक्ता को केवल 220 वोल्ट या 230 वोल्ट की आवश्यकता होती है। अतः उपभोक्ता के पास एक फेज, एक न्यूट्रल तथा सुरक्षा की दृष्टि से एक भू-संयोजन का तार कुल मिलाकर 3-तार का संयोजन प्रदान किया जाता है।
विद्युत वितरण लाइन- विद्युत वितरण केन्द्रों
से विद्युत शक्ति को उपभोक्ता तक मुख्यतः दो प्रकार से पहुंचाया जाता है
1. शिरोपरि लाइन, 2. भूमिगत लाइन
1. शिरोपरि लाइन- जब विद्युत वितरण के लिए चालक(तार) खम्बों पर खींचे जाते हैं तो उसे शिरोपरि लाइन कहते हैं यह दो प्रकार के होते हैं।
1. क्षैतिज लाइन- इस लाइन में तार एक दूसरे के क्षैतिज तल में स्थापित किए जाते हैं। इसका उपयोग 250 वोल्ट, 400 वोल्ट, 11 किलो वोल्ट, 33 किलो वोल्ट या इससे अधिक के लिए किया जाता है।
2. ऊर्ध्व लाइन- ऊर्ध्व लाइन में तार एक
दूसरे के ऊपर क्रम में स्थापित किए जाते हैं इसका उपयोग केवल निम्न अथवा मध्यम
(250
वोल्ट या 650 वोल्ट) वोल्टेज के लिए किया
जाता है
2. भूमिगत लाइन- यह लाइन जमीन के अंदर स्थापित की जाती है इसमें 11 किलो वोल्ट या उससे कम वोल्टेज के ही लाइन स्थापित किए जाते हैं। यह सुरक्षित तथा दीर्घकालिक तक उपयोग की जाने वाली लाइन है। इसमें एक बार खराबी आती है तो पूरा केबल ही बदलना पड़ता है।
शिरोपरि लाइन में प्रयुक्त सामग्री-
1.
खम्बें(Poles)
2.
क्रॉस-आर्म(Cross-arm)
3. लाइन
इन्सुलेटर(Line insulator)
4. तार(Wire)
5.
स्टे-रॉड तथा स्टे-वायर(Stay-rod and stay-wire)
6.
गार्डिंग(Guarding)
7.
क्लैम्प तथा नट-बोल्ट(Clamp and nut-bolt)
1. खम्बें(Poles)- विद्युत् लाइन को खींचने के लिए खम्बा सबसे महत्वपूर्ण है। ये कई प्रकार से बनाये जाते है।
1. लकड़ी- यह अस्थाई होता है। इसका उपयोग कम वोल्टेज की लाइनों के लिए किया जाता है। इसकी लंबाई 6 से 9 मीटर तक होती है।
2. सीमेंट- यह लोहे के सरिये तथा कंक्रीट से बना होता है। इसको 11 किलो वोल्ट तथा उससे कम वोल्टेज के लिए उपयोग किया जाता है।
3. रेल लाइन- यह लोहे का I क्रॉस-सेक्शन का होता है। यह बहुत ही मजबूत तथा स्थाई होता है। इसका उपयोग भी 11 किलो वोल्ट तक के लिए किया जाता है।
4. ट्यूबलर- इस खम्बें का व्यास आधार पर अधिक तथा ऊपर कुछ कम होता है। इनका उपयोग भी कम वोल्टेज की लाइन के लिए किया जाता है।
5. टावर- 11 किलो वोल्ट से अधिक वोल्टेज की लाइन के लिए एंगल से तैयार किए गए विभिन्न आकृति के टावर बनाये जाते हैं। इनकी ऊंचाई 23 से 30 मीटर तक होती है।
2. क्रॉस-आर्म- खम्बें के ऊपरी सिरे पर क्लैंप तथा नट बोल्ट की सहायता से लोहे का एंगल कसा जाता है, जिसे क्रॉस-आर्म कहते हैं। क्रॉस-आर्म पर ही इन्सुलेटर लगाए जाते हैं। तथा इन्सुलेटर पर ही तार को कसा जाता है।
3. लाइन इन्सुलेटर(Line Insulator)- यह प्राय: चीनी मिट्टी के बने होते हैं। इनको नट बोल्ट की सहायता से क्रॉस-आर्म में कस दिया जाता है। यह निम्न प्रकार के होते हैं।
1. पिन इन्सुलेटर- इनका प्रयोग सीधी लाइन में किया जाता है। यह डबल तथा ट्रिपल शेड वाले होते हैं। डबल शेड का प्रयोग 650 वोल्ट तक तथा ट्रिपल शेड वाले इन्सुलेटर का प्रयोग 650 वोल्ट से अधिक वोल्टेज वाली लाइन में किया जाता है।
2. शैकल इन्सुलेटर- यह डबल शेड वाले मजबूत इन्सुलेटर होते हैं। इनका उपयोग सामान्यतः लाइन के अंतिम खंबे अथवा मोड़ पर किया जाता है। इनको भी बोल्ट और नट की सहायता से क्रॉस-आर्म पर कसा जाता है।
3. सस्पैंशन इन्सुलेटर- अधिक वोल्टेज वाली लाइनों में इस इन्सुलेटर का प्रयोग किया जाता है। यह इन्सुलेटर अधिक लम्बे होते हैं जिससे लाइन का तार क्रॉस-आर्म से पर्याप्त दूरी पर रहे।
4. स्टे-इन्सुलेटर- इस इन्सुलेटर का उपयोग स्टे-वायर तथा उच्च वोल्टेज लाइन के जोड़ में किया जाता है। इसे स्ट्रेन इन्सुलेटर भी कहते हैं।
4. तार- विद्युत पारेषण लाइन में नंगे तार प्रयोग किए जाते हैं। यह अधिकांशतः कई तारों को ऐंठ कर बनाए जाते हैं। तार में बहने वाली धारा के अनुसार तार का व्यास रखा जाता है।
1. इकहरा नंगा तांबे का तार- इसका व्यास 6 SWG से 8 SWG तक होता है। इसका उपयोग 2 किलोवाट लोड वाले सिंगल फेज के लिए किया जाता है।
2. ACSR तार- इसमें एक स्टील के तार को
कई एल्युमिनियम के तार के साथ ऐंठ कर बनाया जाता है
3. CCSR तार- इसमें एल्युमिनियम के स्थान पर तांबे का तार प्रयोग किया जाता है। इनकी तनन सामर्थ्य अधिक होती है। यह बहुत अधिक मान के धारा के लिए उपयुक्त होते हैं।
5. स्टे-रॉड तथा स्टे-वायर- जब लाइन को किसी स्थान पर मोड़ना हो या अंतिम खम्बा हो तो वहां पर खम्बें पर खिंचाव बल लगता है, जिससे खम्बा टूट जाता है इससे बचने के लिए खम्बें को स्टे-रॉड तथा स्टे-वायर से संतुलित किया जाता है। स्टे-वायर प्राय: 8 SWG के चार से सात वायर को ऐंठ कर बनाया जाता है। स्टे-रॉड का उपयोग अधिक खिंचाव की दशा में किया जाता है।
6. गार्डिंग- आंधी तूफान या अन्य किसी भी करणों से तार टूट कर नीचे गिर जाता है जिससे जान-माल की हानि होती है। इससे बचने के लिए लाइन के नीचे खम्बों में कुछ हल्के तार खींच दिए जाते हैं। इन तारों को अर्थ कर दिया जाता है। जब भी तार टूट कर गिरता है तो इन्हीं हल्के तारों पर रुक जाता है तथा अर्थ किए होने की वजह से कोई हानि की संभावना नहीं रहती है। भारतीय विद्युत नियम 88 के अनुसार सभी प्रकार की शिरोपरि लाइन पर गार्ड लगाना आवश्यक है तथा सड़क, रेलवे, नदी, नहर, टेलीफोन लाइन, भिन्न वोल्टेज की लाइन आदि को आर-पार करने की स्थिति में अतिरिक्त गार्ड की आवश्यकता होती है।
7. क्लैम्प तथा नट-बोल्ट- इन्सुलेटर को क्रॉस-आर्म पर कसने के लिए तथा, क्रॉस-आर्म को खम्बें पर
कसने के लिए इनका प्रयोग किया जाता है
शिरोपरि लाइन में ढील- हम जानते हैं कि किसी भी धातु का तापमान बढ़ाया जाए तो धातु में प्रसार होता है। अतः शिरोपरी लाइन में भी गर्मी के दिनों में यह प्रभाव दिखाई देता है जिससे तारों की लम्बाई बढ़ जाती है और इसको ध्यान में रखकर जब खम्बों पर तार खींचें जाते हैं तो तार में कुछ ढील दिया जाता है जिससे वह जाड़े के दिनों में तनकर टूट न जाए और इतना भी ढील न दी जाए की गर्मी के दिनों में आंधी-तूफान चलने पर आपस में शार्ट हो जाएं । इसके लिए निम्न सूत्र प्रयोग किया जाता है।
ढील = प्रति मीटर तार का भार×(खम्बों का स्पैन मी० में )2
8×तार का तनन बल
विद्युत शक्ति लाइन की किस्में-
1. निम्न वोल्टता लाइन- 400 वोल्ट 3-फेस सर्विस लाइन निम्न वोल्टता लाइन कहलाती है। यह नंगे तार अथवा केबल प्रकार की हो सकती है।
2. मध्य वोल्टता लाइन- 11 किलो वोल्ट की 3-फेज 3-तार लाइन मध्य वोल्टता लाइन कहलाती है। अधिकांशत: यह नंगे तार वाली होती है किंतु विशेष परिस्थितियों में इसे भूमिगत केबल के रूप में भी खींचा जाता है।
3. उच्च वोल्टता लाइन- 33 kV, 66 kV, 132 kV तथा 220 kV वाली लाइन उच्च वोल्टता वाली लाइन कहलाती है। यह खम्बों तथा टावर्स पर स्थापित तीन नंगे तारों के रूप में होती है। यह लाइन, विद्युत् उत्पादन केन्द्रों से ग्रिड-स्टेशन तथा सब-स्टेशन को विद्युत शक्ति आपूर्ति करती है।